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SHIKHAR MAINS 2022- DAY 35 Model Answer Hindi

Updated : 16th Sep 2022
SHIKHAR MAINS 2022- DAY 35 Model Answer Hindi

Q1. क्षेत्रवाद राष्ट्रीय एकता का विरोध नहीं है, बल्कि दोनों एक रचनात्मक साझेदारी में सह-अस्तित्व में रह सकते हैं। भारत के संदर्भ में इस कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (8 अंक)

"Regionalism is not opposed to national integration; rather both can co-exist in a creative partnership. Critically analyse this statement in the context of India.

दृष्टिकोण 

  • भूमिका में क्षेत्रवाद को परिभाषित कीजिये।
  • भारतीय संदर्भ में क्षेत्रवाद के सकारात्मक महत्व की चर्चा कीजिए।
  • क्षेत्रवाद से उत्पन्न खतरों की उदाहरण सहित चर्चा कीजिए।
  • निष्कर्ष में क्षेत्रवाद के खतरों को कम करने के उपायों की चर्चा करते हुए उत्तर का समापन कीजिये। 

उत्तर-  

                साधारण शब्दों में क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के पृथक अस्तित्व के लिए जन्मी भावना है। क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के प्रति उच्च भावना तथा निम्न भावना से जन्म सकता है। उच्च भावना से आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक कारणों से क्षेत्रवाद का जन्म हो सकता है। क्षेत्रवाद से तात्पर्य किसी दिये गए क्षेत्र के समाज के लोगों में अन्य समाजों के प्रति पूर्वगृह आधारित नकारात्मक दृष्टिकोण से है। इसके परिणामस्वरूप संवादहीनता एवं सामाजिक दूरी पनपती है। यद्यपि क्षेत्रवाद का उपयोग नकारात्मक संदर्भों में किया जाता है परंतु कभी कभी कुछ विचारक इसे सकारात्मक व नकारात्मक क्षेत्रवाद में भी विभक्त करते हैं। 

भारत में भी क्षेत्रवाद सकारात्मक व नकारात्मक अर्थों में विद्यमान है। 

भारत में सकारात्मक अर्थों में क्षेत्रवाद-  

  • सकारात्मक क्षेत्रवाद से तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों का स्वयं की संस्कृति एवं भाषा के संवर्द्धन एवं संरक्षण की प्रवृति से है।
  • कभी- कभी इसे उपराष्ट्रवाद की संज्ञा भी दी जाती है। 
  • सकारात्मक पहलुओं के संदर्भ में इसमें नृजातीय, भाषा, धर्म इत्यादि पहचान को सुदृढ़ करने की तीव्र इच्छा अंतर्निहित होती है।
  • उदाहरण के लिए बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल तथा मध्य प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों तक विस्तृत भूतपूर्व झारखंड आंदोलन ने स्वयं को सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक हितों की रक्षा और प्रोत्साहन के लिए एक एकीकृत समूह के रूप में संगठित किया। अंतत: आंदोलन -सरकार को राज्यों का पुनर्गठन करने हेतु विवश करने में सफल रहा। 

नकारात्मक क्षेत्रवाद-

वहीं नकारात्मक क्षेत्रवाद से तात्पर्य पूर्वागृह आधारित सामाजिक दूरी एवं द्वैष  से है जिसके अंतर्गत एक क्षेत्र विशेष के लोग अन्य के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हों। 

यह क्षेत्रवाद निम्न 6 कारणों से प्रकट हो सकता है;

  • आर्थिक उच्च भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - खालिस्तान;
  • आर्थिक निम्न भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - तेलंगाना, उत्तराखंड, झारखंड;
  • राजनैतिक उच्च भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - मराठवाड़, गौरखालैंड;
  • राजनैतिक हीन भावना से जन्म क्षेत्रवाद - जम्मू कश्मीर;
  • सामाजिक उच्च भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - तमिल नाडु में हिंदी विरोधी दृष्टिकोण;
  • सामाजिक स्तर पर हीन भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - पूर्वोत्तर राज्यों में; 

किसी भी समाज के लिए यद्यपि सकारात्मक क्षेत्रवाद जिसमें विविधता की स्वीकार्यता हो, लाभदायक होता है।  नकारात्मक क्षेत्रवाद सदैव आर्थिक सामाजिक प्रगति में बाधक होते हैं।

             क्षेत्रवाद के नकारात्मक एवं राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व के रूप में रूप में प्रभाव कम करने हेतु राष्ट्रीय पहचान के साथ साथ क्षेत्रीय पहचान को पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता के नाम पर क्षेत्रीय पहचान से दूरी बनाने हेतु प्रेरित करने की बजाय क्षेत्रीय पहचान के अखिल भारतीय संस्कारण पर महत्व दिया जाना चाहिए। एक क्षेत्र की पहचान को अन्य क्षेत्रों में भी महत्व मिलने पर परस्परिक समन्वय में वृद्धि होगी।

 


 

Q2. संस्कृतिकरण और पाश्चात्यीकरण से आप क्या समझते हैंसंस्कृतिकरण व पाश्चात्यीकरण ने समकालीन भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित किया?

What do you understand by Sanskritization and Westernization? Elucidate, how Sanskritization and Westernization impacted the caste system in contemporary Indian society?

दृष्टिकोण:-

·        सर्वप्रथम, संक्षेप में एम श्रीनिवास द्वारा दी गई संस्कृतिकरण और पाश्चात्यीकरण की अवधारणा को समझाइये। 

·        तत्पश्चात, विभिन्न तर्कों एवं उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट कीजिये कि किस प्रकार से संस्कृतिकरण व पाश्चात्यीकरण ने समकालीन भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को प्रभावित किया है ।

·        अंत में एक या दो पंक्तियों में निष्कर्ष लिखते हुए उत्तर का समापन कीजिए।

उत्तर:-

          भारतीय समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण और पाश्चात्यीकरण की अवधारणा प्रस्तुत की । इनके अनुसार,”संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में निचली या मध्यम  हिन्दू जाति या जनजाति या कोई अन्य समूह, अपनी प्रथाओं, रीतियों और जीवनशैली को उच्च जातियों(ब्राह्मण, क्षेत्रीय इत्यादि) की दिशा में बदल लेते हैं। प्रायः ऐसे परिवर्तन के साथ ही वे जातिव्यवस्था में उस स्थिति से उच्चतर स्थिति के दावेदार भी बन जाते हैं, जो कि परम्परागत रूप से स्थानीय समुदाय उन्हें प्रदान करता आया हो ।

पाश्चात्यीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा, खानपान, पहनावे की शैलियों, भोजन करने के तरीकों, इत्यादि में परिवर्तन देखा जा सकता है जहां इस परिवर्तन की प्रेरणा जाति व्यवस्था न होकर पश्चमी दुनिया की संस्कृति होती है । हालांकि यह परिवर्तन प्राय सर्वप्रथम उच्च जातियों में देखने को मिलता है जिन्हे निचली जातियों ने संस्कृतिकरण के जरिये अपनाया । यह परिवर्तन ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों के शासन की शुरुआत से दिखाई देता है ।

संस्कृतिकरण व पाश्चात्यीकरण का समकालीन भारतीय समाज में जाति व्यवस्था पर प्रभाव:-

·        संस्कृतिकरण  ने अनुष्ठान और धर्मनिरपेक्ष रैंकिंग के बीच की खाई को कम या हटा दिया। इसने कमजोर व्यक्तियों के उत्थान में भी मदद की है । निम्न जाति समूह जो सफलतापूर्वक धर्मनिरपेक्ष सत्ता की ओर आगे बढ़ा है, ने भी ब्राह्मणों  जैसी सेवाओं या कार्य वृत्तियों का लाभ उठाने की कोशिश या इन्हें अपनाने का प्रयास किया है - विशेष रूप से आनुष्ठानिक क्रियाकलाप, पूजा पद्धति और ईश्वर के समर्पण का भाव ।  

·        पश्चिमीकरण आधुनिक शिक्षा ने समाज के कमजोर वर्गों के लिए प्रचलित कई सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं की कठोरता जैसे  व्यवस्था में विकसित कुरीतियों और कमजोरियों को उजागर किया था यानी महिलाओं के प्रति अस्पृश्यता का भाव और अमानवीय व्यवहार, सती, बहुविवाह , बाल विवाह आदि आदि उस समय प्रचलित थे, को कम करने का प्रयास किया है ।

·        संस्कृतिकरण अनुकरण की प्रक्रिया द्वारा ऊर्ध्वगामी गतिशीलता की प्रक्रिया है जबकि पश्चिमीकरण विकास की प्रक्रिया द्वारा ऊर्ध्वगामी गतिशीलता की प्रक्रिया है। इन दोनों ने निचली जातियों को ऊर्ध्वगामी गतिशीलता में मदद की।

·        संस्कृतिकरण, सांस्कृतिक गतिशीलता की एक प्रक्रिया को इंगित करता है जो भारत की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में हो रही है। कर्नाटक के कूर्ग जिले में  एम एन श्रीनिवास ने अपने अध्ययन में पाया कि जाति पदानुक्रम में अपना स्थान बढ़ाने के लिए निम्नजातियों ने कुछ उच्च जातियों के रीति-रिवाजों और प्रथाओं को अपनाया है।

·        ब्राह्मणों और  कुछ लोगों ने उन चीजों को छोड़ दिया जिन्हें उच्च जातियों द्वारा अपवित्र माना जाता था। उदाहरण के लिए उन्होंने मांस खाना, शराब पीना और अपने देवताओं को पशुबलि देना छोड़ दिया। उन्होंने पोशाक, भोजन और अनुष्ठानों के मामलों में ब्राह्मणों की नकल की।

·        इसके द्वारा वे एक पीढ़ी के भीतर जातियों के पदानुक्रम में उच्च पदों का दावा कर सकते थे। संस्कृतीकरण आमतौर पर उन समूहों में हुआ है जिन्होंने राजनीतिक और आर्थिक शक्ति का आनंद लिया है, लेकिन अनुष्ठान रैंकिंग में उच्च स्थान पर नहीं थे।

·        औपनिवेशिक भारत में पश्चिमीकरण का प्रभाव कुलीन वर्ग पर था क्योंकि वे अंग्रेजी माध्यम  में धर्मनिरपेक्ष विषयों का अध्ययन करते थे।

·        ब्राह्मणों और अन्य जातियों ने अदालतों में सीखने की परम्परा व विज्ञान की परम्परा के स्थान पर अंग्रेजी माध्यम में धर्मनिरपेक्ष  शिक्षा को अपनाया ।

·        शिक्षा की नई प्रणाली द्वारा भारतीय समाज में एक और बदलाव यह आया है कि स्कूलों को, पारम्परिक स्कूलों के विपरीत सभी प्रकार के जातियों के लिए खोल दिए गए। पारम्परिक स्कूल केवल उच्च जाती के बच्चों तक ही सीमित थे और ज्यादातर पारम्परिक ज्ञान को प्रसारित करते थे।

 इस प्रकार आज भी चाहे सिनेमा हो, खानपान हो, पहनावा हो या फिर व्यवसाय हो,संस्कृतिकरण और पश्चमीकरण विभिन्न स्तर पर भारतीय समाज में जाति व्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं।