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SHIKHAR MAINS 2022 - DAY 5 Model Answer Hindi

Updated : 12th Aug 2022
SHIKHAR MAINS 2022 - DAY 5 Model Answer Hindi

Q1: क्षेत्रवाद से आप क्या समझते हैं? भारतीय संदर्भों में क्षेत्रवाद का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

दृष्टिकोण-

  • भूमिका में क्षेत्रवाद की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  • भारतीय संदर्भ में क्षेत्रवाद के सकारात्मक महत्व चर्चा कीजिए।
  • क्षेत्रवाद से उत्पन्न खतरों की उदाहरण सहित चर्चा कीजिए।
  • निष्कर्ष में क्षेत्रवाद से उत्पन्न खतरों को कम करने के उपायों की चर्चा कीजिए ।


उत्तर-

   साधारण शब्दों में क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के पृथक अस्तित्व के लिए जन्मी भावना है। क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के प्रति उच्च भावना तथा निम्न भावना से जन्म सकता है। उच्च भावना से आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक कारणों से क्षेत्रवाद का जन्म हो सकता है। क्षेत्रवाद से तात्पर्य किसी दिये गए क्षेत्र के समाज के लोगों में अन्य समाजों के प्रति पूर्वगृह आधारित नकारात्मक दृष्टिकोण से है। इसके परिणामस्वरूप संवादहीनता एवं सामाजिक दूरी पनपती है।

          यद्यपि क्षेत्रवाद का उपयोग नकारात्मक संदर्भों में किया जाता है परंतु कभी -कभी कुछ विचारक इसे सकारात्मक व नकारात्मक क्षेत्रवाद में भी विभक्त करते हैं। भारत में भी क्षेत्रवाद सकारात्मक व नकारात्मक दोनों अर्थों में विद्यमान है। 

भारत में सकारात्मक अर्थों में क्षेत्रवाद-

  • सकारात्मक क्षेत्रवाद से तात्पर्य किसी क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों का स्वयं की संस्कृति एवं भाषा के संवर्द्धन एवं संरक्षण की प्रवृति से है। कभी कभी इसे उपराष्ट्रवाद की संज्ञा भी दी जाती है।
  • सकारात्मक पहलुओं के संदर्भ में इसमें नृजातीय, भाषा, धर्म इत्यादि पहचान को सुदृढ़ करने की तीव्र इच्छा अंतर्निहित होती है।
  • उदाहरण के लिए बिहार, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल तथा मध्य प्रदेश के दूरस्थ क्षेत्रों तक विस्तृत भूतपूर्व झारखंड आंदोलन ने स्वयं को सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक हितों की रक्षा और प्रोत्साहन के लिए एक एकीकृत समूह के रूप में संगठित किया। अंतत: आंदोलन सरकार को राज्यों का पुनर्गठन करने हेतु विवश करने में सफल रहा।


नकारात्मक क्षेत्रवाद

        वहीं नकारात्मक क्षेत्रवाद से तात्पर्य पूर्वागृह आधारित सामाजिक दूरी एवं द्वैष से है जिसके अंतर्गत एक क्षेत्र विशेष के लोग अन्य के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हों।

यह क्षेत्रवाद निम्न 6 कारणों से प्रकट हो सकता है -

  • आर्थिक उच्च भावना से जन्म क्षेत्रवाद - खालिस्तान
  • आर्थिक निम्न भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - तेलंगाना, उत्तराखंड, झारखंड
  • राजनैतिक उच्च भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - मराठवाड़, गौरखालैंड
  • राजनैतिक हीन भावना से जन्मा  क्षेत्रवाद - जम्मू कश्मीर
  • सामाजिक उच्च भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - तमिलनाडु में हिंदी विरोधी दृष्टिकोण
  • सामाजिक स्तर पर हीन भावना से जन्मा क्षेत्रवाद - पूर्वोत्तर राज्यों में

          किसी भी समाज के लिए यद्यपि सकारात्मक क्षेत्रवाद जिसमें विविधता की स्वीकार्यता हो, लाभदायक होता है। नकारात्मक क्षेत्रवाद सदैव आर्थिक सामाजिक प्रगति में बाधक होते हैं।

        क्षेत्रवाद के नकारात्मक एवं राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व के रूप में प्रभाव कम करने हेतु राष्ट्रीय पहचान के साथ साथ क्षेत्रीय पहचान को पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता के नाम पर क्षेत्रीय पहचान से दूरी बनाने हेतु प्रेरित करने की बजाय क्षेत्रीय पहचान के अखिल भारतीय संस्करण को  महत्व दिया जाना चाहिए। एक क्षेत्र की पहचान को अन्य क्षेत्रों में भी महत्व मिलने पर परस्परिक समन्वय में वृद्धि होगी।

Q2: पंथनिरपेक्षता से आप क्या समझते है ?भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा , धर्मनिरपेक्षता के पाश्चत्य मॉडल से किन अर्थों में भिन्न है ? संगत तर्कों के साथ स्पष्ट कीजिये।

दृष्टिकोण- 

  • पंथनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए भूमिका लिखिए ।
  • भारत में धर्मनिरपेक्षता को समझाइये
  • इसके बाद भारतीय और पश्चिमी व्याख्या में अंतर पर विचार व्यक्त कीजिए।
  • निष्कर्ष में सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ अपना पक्ष रखिए।

उत्तर –

भारत विभिन्न धर्मों व् मान्यताओं को मानने वाला देश है, इन विविधताओं में एकता ही भारतीय समाज की सुंदरता है। चूँकि किसी एक धर्म में कई पंथ हो सकते है जैसे हिन्दू धर्म में वैष्णव पंथ, शैव पंथ आदि। इस तरह धर्मनिरपेक्षता में धर्म से निरपेक्ष रहना अर्थात धर्म के मामलों में हस्तक्षेप ना करना शामिल है, वहीं पंथनिरपेक्षता में इससे आगे बढ़कर विभिन्न पंथों के मामलों में निरपेक्ष रहना स्वीकार किया गया है।

भारत में धर्मनिरपेक्षता;

          धर्मनिरपेक्षतावाद एक विचारधारा है जो राजनीति से धर्म के पृथक्करण का समर्थन करता है। यह सरकारी संस्थाओं एवं राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिदेशित अधिकारियों को धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक पदाधिकारिओं से पृथक करने संबंधी सिद्धांत है। यह समाज को अनुभव कराने का प्रयास करता है कि किसी भी व्यक्ति को धार्मिक वर्चस्व से रहित होना चाहिए।

प्रो एम वी पायली के अनुसार निम्न अर्थों में भारत में धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार किया गया है।

  • राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और ना ही वह किसी धर्म के साथ खुद की पहचान स्थापित करेगा
  • व्यक्तियों को अपनी मर्जी के अनुसार किसी भी धर्म को अपनाने , मानने या ना मानने की पूरी छूट होगी
  • धर्म के आधार पर किसी सार्वजानिक स्थल पर, किसी सरकारी कार्यालय में तथा किसी होटल , जलाशय , पार्क आदि स्थलों पर भेदभाव नहीं किया जा सकता
  • यदि कोई सामाजिक कुरीति, किसी धर्म से अनुप्राणित है अर्थात उसे किसी धर्म के द्वारा मान्यता दी गयी है तो इस मामले में राज्य हस्तक्षेप कर सकता है

भारतीय और पश्चिमी व्याख्या में अंतर :-

  • भारतीय संदर्भ में सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए। इसके विपरीत पाश्चात्य संदर्भ में राज्य का धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
  • भारतीय संदर्भ में राज्य किसी धर्म के साथ अपनी पहचान स्थापित नहीं कर सकता है। सभी धर्मों को समान रूप से नीतियों में लाभ दिये जाते हैं। पाश्चात्य संदर्भ में राज्य न तो किसी धर्म को प्रोत्साहित कर सकता है न ही भेदभाव।
  • भारत में राज्य के लिए जरूरी नहीं कि धर्म के हर पहलू को एक जैसा सम्मान प्रदान करे। यह संगठित धर्मों के कुछ पहलुओं के प्रति एक जैसा असम्मान दर्शाने कि अनुमति भी देता है जैसे- सामाजिक बुराइयों। पाश्चात्य संदर्भ में राज्य कि कोई भूमिका नहीं है। चर्च अपने नियमों से धार्मिक मामलों को देखता है
  • भारत में सार्वजनिक स्थल पर या सामान्य विधि के अंतर्गत धर्म की निजी मान्यताओं व प्रतीकों के प्रयोग की इजाजत है ,किन्तु पश्चिमी देशों में इसकी अनुमति नहीं है।

          इस प्रकार भारतीय अवधारणा में इसका सकारात्मक रूप अपनाया गया है। जहां राज्य का अपना कोई धर्म/पंथ नहीं है तथा राज्य के अधीन प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त है। यद्यपि यह स्वतंत्रता युक्तियुक्त निर्बन्धनों ( Reasonable Restriction) के अंतर्गत है। वहीं पश्चिम में, यह चर्च और राज्य के मध्य कठोर पृथक्करण पर केन्द्रित है, जबकि भारत में सभी धर्मों के शांतिपूर्ण-अस्तित्व को केंद्र में रखा गया है।