Q1: क्षेत्रवाद से आप क्या समझते हैं? भारतीय संदर्भों में क्षेत्रवाद का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
दृष्टिकोण-
उत्तर-
साधारण शब्दों में क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के पृथक अस्तित्व के लिए जन्मी भावना है। क्षेत्रवाद अपने क्षेत्र के प्रति उच्च भावना तथा निम्न भावना से जन्म सकता है। उच्च भावना से आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक कारणों से क्षेत्रवाद का जन्म हो सकता है। क्षेत्रवाद से तात्पर्य किसी दिये गए क्षेत्र के समाज के लोगों में अन्य समाजों के प्रति पूर्वगृह आधारित नकारात्मक दृष्टिकोण से है। इसके परिणामस्वरूप संवादहीनता एवं सामाजिक दूरी पनपती है।
यद्यपि क्षेत्रवाद का उपयोग नकारात्मक संदर्भों में किया जाता है परंतु कभी -कभी कुछ विचारक इसे सकारात्मक व नकारात्मक क्षेत्रवाद में भी विभक्त करते हैं। भारत में भी क्षेत्रवाद सकारात्मक व नकारात्मक दोनों अर्थों में विद्यमान है।
भारत में सकारात्मक अर्थों में क्षेत्रवाद-
नकारात्मक क्षेत्रवाद
वहीं नकारात्मक क्षेत्रवाद से तात्पर्य पूर्वागृह आधारित सामाजिक दूरी एवं द्वैष से है जिसके अंतर्गत एक क्षेत्र विशेष के लोग अन्य के प्रति असहिष्णुता का भाव रखते हों।
यह क्षेत्रवाद निम्न 6 कारणों से प्रकट हो सकता है -
किसी भी समाज के लिए यद्यपि सकारात्मक क्षेत्रवाद जिसमें विविधता की स्वीकार्यता हो, लाभदायक होता है। नकारात्मक क्षेत्रवाद सदैव आर्थिक सामाजिक प्रगति में बाधक होते हैं।
क्षेत्रवाद के नकारात्मक एवं राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व के रूप में प्रभाव कम करने हेतु राष्ट्रीय पहचान के साथ साथ क्षेत्रीय पहचान को पर्याप्त महत्व दिया जाना चाहिए। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता के नाम पर क्षेत्रीय पहचान से दूरी बनाने हेतु प्रेरित करने की बजाय क्षेत्रीय पहचान के अखिल भारतीय संस्करण को महत्व दिया जाना चाहिए। एक क्षेत्र की पहचान को अन्य क्षेत्रों में भी महत्व मिलने पर परस्परिक समन्वय में वृद्धि होगी।
Q2: पंथनिरपेक्षता से आप क्या समझते है ?भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा , धर्मनिरपेक्षता के पाश्चत्य मॉडल से किन अर्थों में भिन्न है ? संगत तर्कों के साथ स्पष्ट कीजिये।
दृष्टिकोण-
उत्तर –
भारत विभिन्न धर्मों व् मान्यताओं को मानने वाला देश है, इन विविधताओं में एकता ही भारतीय समाज की सुंदरता है। चूँकि किसी एक धर्म में कई पंथ हो सकते है जैसे हिन्दू धर्म में वैष्णव पंथ, शैव पंथ आदि। इस तरह धर्मनिरपेक्षता में धर्म से निरपेक्ष रहना अर्थात धर्म के मामलों में हस्तक्षेप ना करना शामिल है, वहीं पंथनिरपेक्षता में इससे आगे बढ़कर विभिन्न पंथों के मामलों में निरपेक्ष रहना स्वीकार किया गया है।
भारत में धर्मनिरपेक्षता;
धर्मनिरपेक्षतावाद एक विचारधारा है जो राजनीति से धर्म के पृथक्करण का समर्थन करता है। यह सरकारी संस्थाओं एवं राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिदेशित अधिकारियों को धार्मिक संस्थाओं और धार्मिक पदाधिकारिओं से पृथक करने संबंधी सिद्धांत है। यह समाज को अनुभव कराने का प्रयास करता है कि किसी भी व्यक्ति को धार्मिक वर्चस्व से रहित होना चाहिए।
प्रो एम वी पायली के अनुसार निम्न अर्थों में भारत में धर्मनिरपेक्षता को स्वीकार किया गया है।
भारतीय और पश्चिमी व्याख्या में अंतर :-
इस प्रकार भारतीय अवधारणा में इसका सकारात्मक रूप अपनाया गया है। जहां राज्य का अपना कोई धर्म/पंथ नहीं है तथा राज्य के अधीन प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार अन्तःकरण की स्वतंत्रता प्राप्त है। यद्यपि यह स्वतंत्रता युक्तियुक्त निर्बन्धनों ( Reasonable Restriction) के अंतर्गत है। वहीं पश्चिम में, यह चर्च और राज्य के मध्य कठोर पृथक्करण पर केन्द्रित है, जबकि भारत में सभी धर्मों के शांतिपूर्ण-अस्तित्व को केंद्र में रखा गया है।
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