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SHIKHAR Mains Day 3 Answer Hindi

Updated : 9th Jan 2022
SHIKHAR Mains Day 3 Answer Hindi

 1. “चूंकि संविधान ने संसद को सीमित संशोधनकारी शक्ति दी है ,इसलिए उस शक्ति का उपयोग करते हुए संसद इसे चरम अथवा निरंकुश सीमा तक नही बढ़ा सकती”। उपर्युक्त कथन के संदर्भ में संविधान की मूल संरचना के सिद्धांत के विकास की चर्चा कीजिए। (200 शब्द / 12 अंक)

 

एप्रोच -

  • अनुच्छेद 368 तथा  संसद सीमित संशोधन शक्ति के बारे में उल्लेख कीजिये|
  • संविधान की मूल संरचना की विवेचना कीजिए|
  • विभिन्न निर्णयों की सहायता से संविधान की मूल संरचना के विकास की चर्चा कीजिए |

उत्तर -

अनुच्छेद 368 के तहत संसद अपनी संवैधानिक शक्ति का उपयोग करते हुए संविधान में किसी भी प्रावधान को जोड़ अथवा निरस्त कर सकती है। संविधान में किसी प्रकार के संशोधन को ध्यान रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले (1973) में बुनियादी ढांचे की अवधारणा को प्रस्तुत किया। इसने भारतीय संसद की संशोधनकारी शक्तियों को सीमित कर दिया।

हालांकि  भारतीय संविधान में मूल संरचना की अवधारणा का उल्लेख नहीं किया गया है और न ही न संसद की संशोधनकारी शक्तियों पर कोई प्रतिबंध लगाया गया था। यह शंकरी प्रसाद मामले से शुरू हुई संविधान संशोधन पर बहस अंततः केशवानन्द भारती मामले के साथ समाप्त हुई ,जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रश्न को नए ढंग से सुलझाने का प्रयास किया -:

  • किसी भी मौलिक अधिकार को कम करने या छीनने के लिए संसद को सशक्त बनाना।
  • सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के 'बुनियादी ढांचे' के नए सिद्धांत को निर्धारित किया| इसका तात्पर्य यह  था कि संविधान में कुछ बुनियादी विशेषताएं अंतर्निहित हैं जिन्हें संसद द्वारा संशोधनों के माध्यम से बदला या नष्ट नहीं किया जा सकता है।
  • संविधान की सुचिता और मूल तत्व को बनाए रखने के लिए इस सिद्धांत का उपयोग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाद के निर्णयों में किया गया है, जिसे संविधान की मूल विशेषता के रूप मे माना गया ।

इस प्रकार, यह सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुआ है और आज भी उसमे विस्तार हो रहा है;

  • मिनर्वा मिल्स केस (1980) के तहत, सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा को संविधान की बुनियादी विशेषताओं में शामिल किया है|
  • वामन राव केस (1981) में, आधारभूत लक्षण का सिद्धान्त की पुष्टि की गई।

इसके बाद, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की मूल संरचना के तहत धर्मनिरपेक्षता, समानता का अधिकार, जीवन का अधिकार, संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन जैसे 20 से अधिक विशेषताओ को इसके अंतर्गत शामिल किया ।

अत:, मूल संरचना संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति पर एक वास्तविक सीमा है। यह संवैधानिक संशोधनों को कुछ मानकों या मूल्यों के अनुरूप बनाने के लिए बाध्य करता है जो संविधान की सुचिता और भावना को बनाए रखते हैं।

  

2. वे कौन से मूलभूत सिद्धांत हैं जिन पर हमारा संविधान आधारित है? लिखित दस्तावेज के रूप में उन्हें संहिताबद्ध करना क्यों महत्वपूर्ण था? (200 शब्द / 12 अंक)

एप्रोच -

  • कुछ महत्वपूर्ण शब्दो के मध्यम से संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के बारे में संक्षेप में उल्लेख कीजिये ।
  • प्रत्येक महत्वपूर्ण मूलभूत सिद्धान्त के कीवर्ड का संक्षेप में वर्णन कीजिए ।
  • मूलभूत सिद्धांतों को संहिताबद्ध करने के महत्व का उल्लेख कीजिये ।

 

उत्तर -

 

प्रस्तावना को भारतीय संविधान के आत्मा के रूप में जाना जाता है। यह उन मूलभूत मूल्यों को दर्शाता है जिन पर भारतीय संविधान निर्मित है। संविधान की प्रस्तावना के शुरुआती शब्द ‘हम भारत के लोग’ को कुछ अधिकार देता है और जिनकी इच्छा से ही संविधान का उदय हुआ। प्रस्तावना भारत को एक संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने की घोषणा करता  है ।  

 

  1. संप्रभुता - भारत न तो किसी राष्ट्र पर निर्भर है और न ही किसी अन्य राष्ट्र का प्र्भुत्व स्वीकार करता है। यह अपने राष्ट्र के लिए निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है।
  2. लोकतंत्र और गणतंत्र - भारतीय संविधान प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र का प्रावधान करता है। इसके प्रतिनिधियों का चुनाव जनता द्वारा मताधिकार से किया जाता है । इसके तहत कार्यपालिका नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति जिम्मेदार होती है। भारत एक गणतंत्र भी है क्योंकि राजनीतिक संप्रभुता लोगों में निहित है न कि राजा जैसे वंशानुगत किसी एक व्यक्ति में, साथ ही भारत के राष्ट्रपति का चुनाव होता है।
  3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता - भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों के माध्यम से नागरिकों तथा गैर नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुनिश्चित करती है।
  4. विविधता और अल्पसंख्यक अधिकारों का सम्मान - भारतीय संविधान विभिन्न समुदायों के बीच समुदाय आधारित अधिकारों को मान्यता प्रदान करने तथा समानता के व्यवहार को प्रोत्साहित करती है। जैसे -अल्पसंख्यक समुदायों को अपने स्वयं के शिक्षण संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार है। ऐसे संस्थानों को भी सरकार द्वारा वित्त प्रदान किया जा सकता है ।
  5. सामाजिक न्याय – सामाजिक न्याय की अवधारणा सभी मनुष्यों की समानता पर आधारित है।जिसके अनुसार सभी मनुष्य समान है| सभी को समान अवसर मिलना चाहिए| किसी के साथ सामाजिक या धार्मिक आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। इस संदर्भ मे भारतीय संविधान विभिन्न समुदायों के हितों की रक्षा के लिए विभिन्न उपाय करता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का प्रावधान है। संविधान निर्माताओं का मानना ​​था कि केवल समानता का अधिकार प्रदान करना इन समूहों द्वारा झेले गए सदियों पुराने अन्याय को दूर करने या उनके मताधिकार को वास्तविक अर्थ देने के लिए पर्याप्त नहीं है। 
  6. धर्मनिरपेक्षता – भारतीय संविधान सभी को धार्मिक विश्वशों और तौर तरीको को अपनाने की पूरी छुट प्रदान करता है ।धर्म को राज्य से अलग रखने का दृष्टिकोण ही धर्मनिरपेक्षता है ।   हालाँकि शुरुआत में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द का उल्लेख नहीं किया गया था, लेकिन भारतीय संविधान हमेशा से धर्मनिरपेक्ष रहा है।
  7. सार्वभौमिक मताधिकार - भारत का संविधान सभी वयस्क नागरिकों को उनके धर्म, जाति, लिंग या जन्म स्थान आदि के मधायम से विभेद किए बिना मत देने का अधिकार का प्रावधान करता है ।
  8. संघवाद – भारतीय संविधान द्वारा संघीय व्यवस्था को अपनाया गया जहां शक्तियों का बंटवारा केन्द्र और राज्यों के बीच किया गया है । हालाकि कुछ राज्यों को  विशिष्ट स्थिति के कारण विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया गया है,जैसे अनुच्छेद 371A के तहत, नागालैंड ।

 निम्नलिखित कारणों से भारत जैसे नए स्वतंत्र देश में लिखित दस्तावेज के रूप में संविधान के संहिताकरण की आवश्यकता पड़ी:

  • एक लिखित संविधान राज्य और उसके अंगों की संरचना और कार्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने, इसके मूल सिद्धांतों की घोषणा करने, शासी संस्थानों की स्थापना करने और उनके बीच संबंधों को विनियमित करने में मदद करता है।
  • कार्यपालिका के पास संविधान में संशोधन की कठिन प्रक्रिया के बिना लिखित संविधान को बदलने का अधिकार नहीं है - एक प्रक्रिया जो संविधान में ही निर्दिष्ट है। यह सुनिश्चित करता है कि यह संविधान है, जो सर्वोच्च है।
  • एक संघीय व्यवस्था में, एक लिखित संविधान की आवश्यकता होती है क्योंकि यह सरकार के विभिन्न स्तरों पर सत्ता के बंटवारे की व्यवस्था को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करने में मदद करता है। इसके अलावा, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के वितरण को प्रभावित करने वाले प्रावधानों में कम से कम आधे राज्यों की सहमति से ही संशोधन किया जा सकता है।
  • एक लिखित संविधान सरकार की शक्तियों की सीमा निर्धारित करने और नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकारों को निर्दिष्ट करने में मदद करता है जिनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है।
  • यह विश्वास और समन्वय की एक डिग्री उत्पन्न करता है जो समाज के विभिन्न वर्गों के लिए सद्भाव में रहने के लिए आवश्यक है।

 

3. क्या भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने एक संघीय संविधान निर्धारित किया था? चर्चा कीजिये| (125 शब्द / 8 अंक)

एप्रोच - 

  1. भारत सरकार अधिनियम 1935 की मुख्य विशेषताओं के साथ परिचय दें।
  2. चर्चा कीजिए कि भारत सरकार अधिनियम 1935 किस प्रकार संघीय संविधान को निर्धारित करता है।
  3. किस प्रकार 1935 एक्ट अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहा ।

 

उत्तर - 

 

भारत सरकार अधिनियम 1935 के द्वारा भारतीय प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान करने और भारतीय संघ की स्थापना का प्रावधान किया गया । भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत कुछ संघीय विशेषताएं परिलक्षित होती है;

 

भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत संघीय विशेषताएं:

 

1 अखिल भारतीय संघ: इसके अंतर्गत ब्रिटिश भारत प्रांतों और अन्य भारतीय राज्यों से मिलकर एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना का प्रावधान किया। प्रस्तावित संघ में शामिल होने या न होने के लिए राज्य पूरी तरह से स्वतंत्र थे। हालांकि भारतीय राज्यों के शासकों ने इस प्रस्ताव का समर्थन नही किया और इस प्रकार, यह  अधिनियम केवल संकल्पना बन कर रह गया ।
2. प्रांतीय स्वायत्तता: इस अधिनियम के द्वारा  प्रांतीय और केंद्रीय विधायिकाओं के बीच विधायी शक्तियों को विभाजित किया गया। परंतु प्रांतो को स्वायत्ता प्रदान नही की गई । वे परिभाषित क्षेत्र के भीतर प्रशासन की स्वायत्त इकाइयाँ थीं। मंत्री अपने विभागों को चलाने के मामले में बिल्कुल स्वतंत्र नहीं था और राज्यपालों के पास अधिभावी शक्तियों का एक समूह बना रहा।
3. संघीय विधायिका की स्थापना: केंद्र मे द्विसदनीय विधायिका का प्रावधान किया गया । इस अधिनियम के अंतर्गत संघीय विधानसभा की एक परिषद की स्थापना की परिकल्पना की गई । इसमे अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया ।
4. विधायी शक्ति का वितरण: इस अधिनियम के द्वारा  केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों विभाजन किया गया  - संघीय सूची, प्रांतीय सूची और समवर्ती सूची । वे विषय जो अखिल भारतीय हित से संबंधित थे  और एक समान व्यवहार की मांग करते थे, उन्हें संघीय सूची में रखा गया था।
5.एक संघीय अदालत की स्थापना: इस अधिनियम के तहत एक संघीय अदालत की स्थापना की भी परिकल्पना की गई थी ताकि किसी भी विवाद के मामले में अधिनियम के प्रावधानों की व्याख्या की जा सके। इस अधिनियम द्वारा स्थापित संघीय न्यायालय में तीन प्रकार के क्षेत्राधिकार शामिल थे अर्थात मूल, अपीलीय और सलाहकार। संघ और उसकी इकाइयों के बीच किसी भी प्रकार के विवाद में न्यायालय का अनन्य मूल क्षेत्राधिकार था।

भारत सरकार अधिनियम 1935 एक वास्तविक संघीय व्यवस्था नहीं:

  1. विवेकाधीन शक्तियाँ: नए अधिनियम ने राज्यपालों और गवर्नर-जनरल को अधिक विवेकाधीन शक्तियों प्रदान की गई और प्रांतीय स्वायत्तता को सीमित कर कम कर दिया गया ।
  2. प्रांतीय सूची के संबंध में विधान: गवर्नर-जनरल द्वारा आपातकाल की घोषणा के दौरान संघीय विधानमंडल को प्रांतीय सूची में उल्लिखित विषयों के संबंध में कानून बनाने की शक्ति प्राप्त थी।
  3. दोषपूर्ण संघ: इस अधिनियम के तहत प्रांतों के लिए संघ में प्रवेश अनिवार्य था लेकिन रियासतों के लिए स्वैच्छिक । प्रांतों और राज्यों के बीच जनसंख्या, क्षेत्रफल, राजनीतिक महत्व और स्थिति के संबंध में विभेदात्मक स्थिति विध्यमान थी । जहां ब्रिटिश प्रांत आंशिक रूप से स्वायत्त थे वहीं कई राज्य अभी भी राजकुमारों के निरंकुश शासन के अधीन थे।
  4. अवशिष्ट शक्तियाँ: अवशिष्ट शक्तियों का आवंटन अद्वितीय था। यह किसी भी विधायिका, केंद्रीय या प्रांतीय में निहित नहीं था। गवर्नर-जनरल किसी भी अवशिष्ट मामले के संबंध में कानून बनाने के लिए स्वतंत्र था ।अर्थात अवशिष्ट मामलो के संदर्भ मे कानून बनने के लिए गवर्नर जनरल को संघीय या प्रांतीय विधानमंडल से स्वीकृति की आवश्यकता नही थी।  

1935 के अधिनियम का उद्देश्य राष्ट्रवादियों को खुश करने तथा ब्रिटिश शासन को बनाए रखना था हालांकि इस अधिनियम में अलग निर्वाचक मंडल जैसे प्रतिगामी प्रावधान भी शामिल थे। एक संघीय संविधान का मसौदा तैयार करने के प्रावधान के बावजूद, यह सीमित अर्थो मे संघीय अधिनियम के रूप मे था ।



4. "भारतीय संविधान तत्वों और मूल भावना में अद्वितीय है"। , दिए गए कथन के आलोक में भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं पर चर्चा कीजिए । (125 शब्द / 8 अंक)

 

एप्रोच  -

  1. भूमिका में भारतीय संविधान की विशिष्टता के बारे में 2-3 पंक्तियाँ लिखिए।
  2. संविधान की विभिन्न प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए।

 

उत्तर -

 

भारतीय संविधान की अद्वितीयता इस बात पर निर्भर है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है तथा इसमें लचीलेपन और कठोरता, असममित संघीय व्यवस्था आदि का विवेकपूर्ण प्रावधान किया गया है ।

 

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं ;

 

1 .संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता का संश्लेषण - भारतीय संविधान के निर्माताओं ने  ब्रिटिश की संसदीय संप्रभुता के  सिद्धांत और अमेरिका के न्यायिक सर्वोच्चता सिद्धांत के बीच एक उचित संश्लेषण को प्राथमिकता दी है। सर्वोच्च न्यायालय, एक ओर, न्यायिक समीक्षा की अपनी शक्ति के माध्यम से संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है तो  दूसरी ओर, संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के माध्यम से संविधान के बड़े हिस्से में संशोधन कर सकती है।

2. एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका - सर्वोच्च न्यायालय देश में एकीकृत न्यायिक प्रणाली के शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं। एक उच्च न्यायालय के तहत, अधीनस्थ न्यायालयों की पदानुक्रम व्यवस्था की गई है । अर्थात जिला अदालतें और अन्य निचली अदालतें। अदालतों की यह एकल प्रणाली केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य के कानूनों को भी लागू करती है। 

भारतीय संविधान दुनिया का सबसे अधिक विस्तृत ,व्यापक और लिखित दस्तावेज है।

हालांकि भारतीय संविधान विश्व  के विभिन्न संविधानों मे से प्रगतिशील तत्वो  को लेकर बनाया गया है । डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने प्रशंसा की कि भारत का संविधान 'दुनिया के सभी ज्ञात संविधानों मे से लेकर  ' बनाया गया है। 

3. कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण - संविधान के कुछ प्रावधानों में विशेष बहुमत के द्वारा संशोधन किया जा सकता है,जैसे संविधान संशोधन , राष्ट्रपति के चुनाव से  संबन्धित प्रावधान, संघीय ढांचे से संबन्धित प्रावधान आदि ।   तथा संसद मे  संविधान के कुछ प्रावधानों को साधारण विधायी प्रक्रिया के माध्यम संशोधन किया जा सकता है।जैसे राज्यों के नामो  मे परिवर्तन । 

4. संघात्मकता के साथ एकतमकता - 'फेडरेशन' शब्द का प्रयोग संविधान में कहीं भी नहीं किया गया है। हालांकि अनुच्छेद 1, भारत को 'राज्यों के संघ' के रूप में घोषित करता है, जिसका तात्पर्य यह है कि: 

एक, भारतीय संघ राज्यों के समझौते का परिणाम नहीं है; 

दूसरा, किसी भी राज्य को महासंघ से अलग होने का अधिकार नहीं है। इसी कारण भारतीय संघवाद को अर्ध-संघवाद के नाम से भी जाना जाता है।

5. सरकार का संसदीय स्वरूप - भारत में संसदीय सरकार की विशेषताएं हैं:

                    a) नाममात्र और वास्तविक कार्यपालिका 

                    b) बहुमत दल शासन,

                    c) विधायिका के प्रति कार्यपालिका की सामूहिक जिम्मेदारी,

                    d) विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता,

                    e) प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व,

                    f) निचले सदन  (लोकसभा या विधानसभा) का विघटन।

6.  धर्मनिरपेक्ष राज्य - प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता शब्द और अनुच्छेद 14, 15, 16, 25 भारतीय राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को प्रकट करते हैं।

7.  एकल नागरिकता - संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत भारत मे एकल नागरिकता का प्रावधान है, चाहे वे किसी भी राज्य मे जन्म लिए हो  या निवास करते हों।