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SHIKHAR Mains Day 9 Model Answer - Hindi

Updated : 16th Jun 2023
SHIKHAR Mains Day 9 Model Answer - Hindi

Q1: जनहित याचिका से आप क्या समझते हैं ? इसके कार्यान्वयन से जुड़ी सीमाओं का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए|

What do you understand by Public Interest Litigation? Critically examine the limitations associated with its implementation. (8 Marks)

 

दृष्टिकोण -

  • भूमिका में जनहित याचिका के विषय मे लिखिए । 
  • मुख्य भाग में जनहित याचिका उन लोगों के लिए न्याय पाने का एक प्रभावी तरीका है जो इसे वहन नहीं कर सकते है को लिखिए। 
  • अंत में जनहित याचिका के कार्यान्वयन से जुड़ी सीमाओं का समालोचनात्मक परीक्षण करते हुवे निष्कर्ष लिखिए । 

उत्तर: 

जनहित याचिका 1960 के दशक मे संयुक्त राज्य अमेरिका मे प्रारम्भ की गई थी । इसे भारत मे 1980 के दशक मे दशक में न्यायमूर्ति वी आर कृष्णा अय्यर और पी एन भगवती के प्रयासों से शुरू किया गया । जनहित याचिका के माध्यम से समाज का कोई भी व्यक्ति जनहित संबंधी मुद्दों पर न्यायपालिका में याचिका दायर कर सकता है और समाज या समुदाय के हित में न्यायपालिका को न्यायिक कार्य करने का निवेदन कर सकता है। 

पीआईएल को सामाजिक क्रिया याचिका (Social action petition), सामाजिक हित याचिका (Social interest petition), तथा वर्गीय क्रिया याचिका (Class action petition) के रूप में भी जाना जाता है।        

जनहित याचिका के अंतर्गत विधि का शासन स्थापित करने, मौलिक अधिकारों की रक्षा करने एवं सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को न्याय देने के का दृष्टिकोण निहित है ।

 

 जनहित याचिका की भूमिका -

  • यह विधिक सहायता आंदोलन का (अनुच्छेद 39A) का यह एक रणनीतिक हिस्सा है;
  • यह समाज के सामूहिक या सामुदायिक प्रयास को प्रोत्साहित करता है और लोगों को समाज के अधिकारों के प्रति सचेत करता है;
  • जनहित याचिका का सिद्धांत अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 से संबंधित है;
  • इसके माध्यम से न्यायपालिका को सकारात्मक दृष्टिकोण के तहत भूमिका का निर्वहन करना होता है।
  • पीआईएल गरीब और उपेक्षित जनता तक कानूनी सहायता पहुंचाने का एक मानवीय तरीका है। जिसमें जन आघात का निवारण करने, सार्वजनिक कर्तव्य का प्रवर्तन करने, सामूहिक अधिकारों एवं हितों के रक्षण के लिए न्यायालय में याचिका दाखिल किया जाता है।

 

जनहित याचिका के अंतर्गत सामान्यत: जनहित याचिका के रूप में स्वीकार की जाती है -



  • बंधुआ मजदूर या उपेक्षित बच्चे।
  • श्रमिकों का शोषण या श्रम कानूनों का उल्लंघन या न्यनतम मजदूरी का न मिलना । 
  • महिलाओं पर अत्याचार के खिलाफ याचिका (विशेषकर वधु-उत्पीड़न, दहेज-दहन, बलात्कार, हत्या, अपहरण इत्यादि जैसे मामलों में)
  • जेलों से दाखिल उत्पीड़न की शिकायत, समय से पहले मुक्ति के लिए तथा 14 वर्ष पूरा करने के पश्चात मुक्ति के लिए आवेदन, जेल में मृत्यु, स्थानांतरण, व्यक्तिगत मुचलके (Personal bonds) पर मुक्ति या रिहाई, मूल अधिकार के रूपों में त्वरित मुकदमा।
  • पुलिस द्वारा मामला दाखिल नहीं किए जाने संबंधी याचिका, पुलिस उत्पीड़न तथा पुलिस हिरासत में मृत्यु संबंधी मामला आदि ।
  • ग्रामीणों के सह-ग्रामीणों (Co-villagers) द्वारा उत्पीड़न, अनुसूचित जाति तथा जनजाति एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के पुलिस द्वारा उत्पीड़न की शिकायत संबंधी याचिकाएँ।
  • पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संबंधी याचिकाएँ, औषधि, खाद्य पदार्थ में मिलावट संबंधी याचिकाएं, विरासत एवं संस्कृति, प्राचीन कलाकृति वन एवं वन्य जीवों का संरक्षण तथा सार्वजनिक महत्व के अन्य मामलो से संबन्धित याचिकाएँ।
  • दंगा पीड़ितों की याचिकाएं और पारिवारिक पेंशन संबंधी याचिकाएं।

 

 

जनहित याचिका के कार्यान्वयन से जुड़ी समस्यायें:- 

  • उच्चतर न्यायालयों के कार्यभार में अप्रत्याशित वृद्धिः-जनहित याचिकाओं ने न्यायालयों के सामान्य  न्यायिक कामकाज को प्रभावित किया है, जिससे उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के समक्ष लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है, इसके परिणामस्वरूप कानून व्यवस्था ठप हो गई है। 
  • प्रक्रिया का दुरुपयोग:- जनहित याचिकाओं का अत्यधिक दुरुपयोग  किया गया है और इसने 'निजी महत्वहीन  हित याचिका' का रूप ले लिया है। इससे न्यायालय समक्ष महत्वहीन और अनावश्यक याचिकाओं में वृद्धि हुई है।
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  • सरकार के अन्य सहायक अंगों के साथ संघर्ष और विरोध:- जनहित याचिकाओं की एक प्रमुख आलोचना यह है कि इसके माध्यम से न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर रही है। विगत वर्षों के दौरान, जनहित याचिका का सामाजिक उद्देश्यों के लिए कार्य करने का आयाम कमजोर हुआ है और न्यायालयों में एक भिन्न प्रकार के "सार्वजनिक कार्य मुकदमेबाजी" (public cause litigation ) द्वारा ग्रहणग्रस्त हो गया है । इस प्रकार की मुकदमेबाजी में समाज के वंचित या गरीब वर्गों के अधिकारों को लागू कराने के लिए न्यायालय के हस्तक्षेप की मांग नहीं की जाती है, बल्कि केवल कार्यकारी या सार्वजनिक अधिकारियों अथवा सरकार या सार्वजनिक निकायों के विभागों के कार्यों या चूक को ठीक करने के लिए की जाती है। 

 

जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग को रोकने के लिए उठाए गए कदम



  • उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी है कि न्यायालय के पास जनहित याचिका का दुरुपयोग करने वाले पक्षों को अनुकरणीय क्षतिपूर्ति दंड देने की शक्ति होगी। इसके अतिरिक्त, कोई पक्ष जो न्यायालय में जनहित याचिका दायर करता है, उसे न्यायालय द्वारा उस मामले पर आगे की कार्रवाई करने से पहले, प्रथम दृष्टया न्यायालय के समक्ष यह सिद्ध करना होगा कि यह मामला जनहित से संबंधित है।
  • न्यायालय ने दायर जनहित याचिकाओं की जांच करने और मामले की उपयुक्तता की व्याख्या करते हुए न्यायालय के समक्ष रिपोर्ट पेश करने के लिए जांच समितियों का गठन भी शुरू कर दिया है, ताकि न्यायालय का बहुमूल्य समय बचाया जा सके।इस संबंध में न्यायालय न्याय मित्र (Amicus Curiae) की मदद भी लेता रहा है। उच्चतम न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते समय उच्च न्यायालयों को भी सचेत करते हुए कहा कि उसे कार्यपालिका के नीतिगत मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  • उच्चतम न्यायालय ने प्रक्रिया और मुद्दों को परिभाषित करने वाले दिशानिर्देश तैयार किए हैं, कि किस याचिका को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

 

वैध जनहित याचिका के मामलों को स्वीकृत करके और निहित स्वार्थों पर आधारित जनहित याचिकाओं को अस्वीकृत करके एक संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने का एक तरीका जनहित याचिका को मुख्य रूप से उन मामलों तक सीमित करना हो सकता है जहां न्याय प्राप्ति में किसी प्रकार की अक्षमता बाधक हो । अन्य उपयोगी उपकरण निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु जनहित याचिका दायर करने वाले लोगों को आर्थिक निरुत्साहन प्रदान करना हो सकता है।

 

 

Q2: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत किस आधार पर किसी प्रतिनिधि को अयोग्य ठहराया जा सकता है? चर्चा  कीजिए |

        On what grounds a people’s representative can be disqualified under the Representation of Peoples   Act, 1951? (12 Marks)

दृष्टिकोण:

  • भूमिका में जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 के संदर्भ में लिखिए । 
  • मुख्यभाग में  संसद और राज्य विधानमंडलों की सदस्यता के संबंध में निरहर्ताओं के संबंध में लिखते हुए उचित निष्कर्ष लिखिए । 

उत्तर :

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 संसद के सदनों और राज्य विधानमंडल के सदनों के चुनावों के संचालन, सदस्यता के लिए योग्यता और अयोग्यता के प्रावधान और ऐसे चुनावों के संबंध में विवादों के समाधान का प्रावधान करता है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के भाग II के अध्याय III में संसद और राज्य विधानमंडलों की सदस्यता के संबंध में निरहर्ताओं के लिए 8 अलग अलग आधार प्रदान किए गए हैं-

  1. धारा 8 (1) के तहत कुछ अपराधों के लिए दोषसिद्धि पर निरहर्ता का प्रावधान किया गया है निम्नलिखित अपराधों के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी व्यक्ति को निरहित घोषित किया जाएगा: भारतीय दंड संहिता 1860 के तहत अपराध-धारा 153A,  धारा 171E & F,  धारा 498A,  विदेशी मुद्रा (विनियमन) अधिनियम, 1973, आतंकवादी और विध्वंसकारी क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1987, सती (निवारण) अधिनियम, 1987;  भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988; आतंकवाद निवारण अधिनियम, 2002 आदि। 
  2. धारा 8 (2) के तहत, कोई व्यक्ति जिसे जमाखोरी या मुनाफाखोरी, खाद्य पदार्थों या औषधियों में मिलावट, अथवा दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961 के संबंध में किसी भी कानून के उल्लंघन के लिए दोषी ठहराया गया है और कम से कम 6 माह के कारावास की सजा सुनाई गई है। 
  3. धारा 8 (3) के तहत, कोई व्यक्ति जिसे किसी भी अपराध { धारा 8 ( 1 ) या धारा 8 (2) में वर्णित किसी भी अपराध के अतिरिक्त } के लिए दोषी ठहराया गया है और कम से कम दो वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई है। उस व्यक्ति को इस तरह की सजा की तिथि से निरर्हित घोषित कर दिया जाएगा साथ ही उसे उसकी रिहाई के बाद से छह वर्ष की अतिरिक्त अवधि के लिए निरर्हित घोषित किया जाएगा।
  4. धारा 8A भ्रष्ट आचरण के आधार पर निरर्हता का प्रावधान करती है अर्थात लोकप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 की धारा 123 में निर्दिष्ट कुछ भ्रष्ट आचरण के दोषी व्यक्ति को निरर्हित घोषित किया जाएगा। इस तरह की निरर्हता इस शर्त के अधीन है कि आरोपों को उच्च न्यायालय के समक्ष एक निर्वाचन याचिका के माध्यम से माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है और इसे उच्च न्यायालय के आदेश के रूप में राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है। इसके बाद, राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग से राय प्राप्त करने के पश्चात निरर्हता और ऐसी निरर्हता की अवधि के बारे में निर्णय करता है।
  5. धारा 9 में प्रावधान किया गया है कि कोई व्यक्ति जो भारत सरकार के अधीन या किसी राज्य की सरकार के अधीन पहले पद धारण कर चुका है और उसे भ्रष्टाचार के कारण या राज्य के प्रति अभिव्यक्ति के लिए पदच्युत किया गया है, ऐसी पदच्युति की तिथि से पांच वर्ष की अवधि के लिए निरर्हित घोषित किया जाएगा।
  6. धारा 9A सरकार के साथ की गई संविदाओं आदि के लिए निरर्हता का प्रावधान करती है, अर्थात् कोई व्यक्ति निरर्हित होगा यदि उसके द्वारा अपने व्यापार या कारोबार के दौरान उपयुक्त सरकार के साथ माल की आपूर्ति के लिए या उस सरकार द्वारा किए गए किसी भी कार्य के निष्पादन के लिए कोई अनुबंध किया गया है।
  7. धारा 10 सरकारी कंपनी के अधीन पद के लिए निरर्हता का प्रावधान करती है अर्थात् कोई भी व्यक्ति निरर्हित होगा यदि और जब तक वह (सहकारी सोसाइटी से भिन्न ) किसी ऐसी कम्पनी या निगम का जिसकी पूंजी में समुचित सरकार का पच्चीस प्रतिशत से अन्यून अंश है, प्रबंध अभिकर्ता, प्रबंधक या सचिव है।
  8. धारा 10A : निर्वाचन व्ययों का लेखा दाखिल करने में असफलता के कारण निरर्हता।

हालांकि, लोकप्रतिनिधि अधिनियम, 1951 की धारा 11 में यह उल्लेख किया  गया है कि निर्वाचन आयोग धारा 8A के अतिरिक्त उपर्युक्त किसी भी निरर्हता को समाप्त कर सकता है या ऐसी किसी भी निरर्हता की अवधि को कम कर सकता है।

चुनाव किसी भी लोकतंत्र की जीवन रेखा होते हैं। चुनावी प्रक्रियाओं की मजबूती राष्ट्र के भाग्य का निर्धारण करती है। समाज की बदलती जरूरतों के अनुसार चुनाव प्रक्रिया में समय पर सुधार और न्यायपालिका की मजबूत समीक्षा ने आज तक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने में मदद की है।